Thursday 30 November 2017

हिंदी साहित्य का इतिहास

हिंदी साहित्य का इतिहास

हिंदी साहित्य – History of Hindi Literature

आचर्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में साहित्य का महत्व निरुपित करते हुए कहा है. प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता का चित्त वृत्ति का संचित प्रित्बिम्ब होता है.. स्पष्ट है कि जनता की चित्तवृत्तियाँ और उनसे रचित साहित्य इतिहास की कालपरक स्थितियों, विचार धाराओ के अनुरूप होता है.
हिंदी साहित्य
हिंदी साहित्य के 1000 वर्षो के इतिहास का सिंहा वलोकन करने में स्पष्टत: ज्ञात होता है कि विस्तार और विविधता की दृष्टी से इसका सीमांकन जटिल है. हिंदी साहित्य का आरम्भ विद्वानों ने सातवी शताब्दी से स्वीकार किया है किन्तु व्यवस्थित व प्रमाणिक रूप १००० ई. से प्राप्त होता है. इस आरम्भिक काल को विद्वानों ने आदिकाल, वीर गाथाकाल, चारणकाल, रासोकाल, अपभ्रंशकाल का नाम दिया है.
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास फ्रेंच विद्वान् गार्सा द तासी ने किया. इसी परम्परा में श्री शिवसिंह सेंगर ने शिवसिंह सरोज अनामक इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा. जनवरी १९२९ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास ग्रन्थ लिखा.
हिंदी का यह पहला ग्रन्थ है जिसमे अत्यंत सूक्ष्म और व्यापक दृष्टी विवेचन और विश्लेषण मिलता है. आचार्य शुक्ल के पश्चात आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी ने हिंदी साहित्य की भूमिका हिंदी साहित्य उद्भव और विकास हिंदी साहित्य का आदिकाल रचनाये लिखी. इसके अतिरिक्त डॉ, रामकुमार वर्मा का हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास १९३८ डॉ धीरेन्द्र वर्मा के हिंद सम्पादन में हिंदी साहित्य उल्लेखनीय ग्रन्थ है. हिंदी साहित्य के इतिहास को चार कालो में विभात किया गया है. जो की इस प्रकार है.
आदिकाल – वीरगाथा काल – १०५० से १०७५
पूर्व मध्यकाल – भक्तिकाल – १३७५ से १७००
उत्तर मध्यकाल – रीतिकाल १७०० से १९००
आधुनिक काल – १९००
हिंदी साहित्य का यह विभाजन आचार्य शुक्ल ने काल की मुख्य प्रवृत्तियों के आधार पर किया है. नामकरण व काल की सीमा और साहित्य ने निरंतर वृद्धि को दृष्टीगत रख इतिहास के पुनर्लेखन की भी बात उठी है. क्योंकि आधुनिक काल की समयसीमा निश्चित नहीं है. इसलिए कुछ विद्वानों ने इसे १८५० से स्वीकार किया है. इस प्रकार आधुनिक काल निसमे गद्य की प्रमुखता है अब तक है.

आदिकाल १०५० से १३७५

आदिकाल साहित्य राजनितिक दृष्टी से छोटे- छोटे सामंतो में विभक्त राज्यों अथवा प्रदेशो का साहित्य है. सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु विक्रम संवत ७०४ में हुई. इसके पश्चात किसी ने केन्द्रीय सत्ता स्थापित नही की वरन खंड खंड राज्य स्थापित हुए जो आधिपत्य के लिए युद्ध कर रहे थे. इनमे मुख्य तोमर, राठौर, चौहान, चालुक्य और चंदेल थे. १० वी शताब्दी के आसपास अपभ्रंश का  प्रभाव क्षीण हो रहा था, और हिंदी भाषा उसका स्थान ले रही थी इसलिये आदिकाल का साहित्य अपभ्रंश हिंदी का साहित्य है. प्राप्त सामग्री किसी निश्चित भाषा विषय में बंधी हुई नहीं है. फिर भी इस युग की सामग्री को इस तरह विभाजित किया गया है.
विजयपाल रासो
हमीर रासो
कीर्ति लता
पृथ्वीराज रासो
कीर्ती पताका
जयचंद्र प्रकाश
जय मंयक जस चन्द्रिका
परमाल रासो
खुमान रासो
बीसलदेव रासो
खुसरो की पहेलियाँ
विद्यापति पदावली
लौकिक साहित्य आदिकाल की विशेष उपलब्धि है. इसमें ढोला मारू रादूहा खसुरो की पहेलियाँ उल्लेखनीय है. आदिकाल में गद्य साहित्य भी उपलब्ध होता है. जिसमे राउलवेल उक्ति व्यक्ति प्रकरण और वर्ण रत्नाकर उपलब्ध है.

आदिकाल का महत्व

आदिकाल हिंदी साहित्य का प्रादुर्भाव काल है. इस काल का साहित्य के इतिहास में भाषा और साहित्य चेतना की दृष्टी से महत्वपूर्ण स्थान है. भाषा की दृष्टी से आदिकाल में उस भाषा का जन्म हुआ, जो बाद में क्रमशः विकसित होती हुई आज शासन की दृष्टी से राजभाषा और जनता की दृष्टी से राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है.

साहित्यिक दृष्टी से यह युग अत्यंत समृद्ध रहा है. इस काल में काव्य के विषय अत्यंत व्यापक थे. भक्ति वीरता, लोकजीवन, श्रृंगार आदि इस युग के प्रमुख काव्य विषय थे. इस युग में प्रबंध और मुक्तक के साथ – साथ गद्य साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ परवर्ती हिंदी साहित्य को विषय वस्तु और शिल्प विधान की दृष्टी से आदिकालीन साहित्य ने लम्बे समय तक प्रभावित किया.

भक्तिकाल – १३७५ से १७००

भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल माना जाता है. इस काल में लगभग ३०० वर्ष तक व्याप्त भक्ति आन्दोलन अखिल भारतीय था. इसमें विभिन्न वर्गो वर्ण व्यवस्था सामाजिक भेदभाव, कर्मकांड के विरुद्ध आन्दोलन दिखाई पड़ता है. जिसमे धर्म के रूढ़ और साधनात्मक रूप की अपेक्षा भावनात्मकता से परिपूर्ण एक मानवीय भाव दिखाई पड़ता है. जो मनुष्य से जोड़ता है. यह भाव बिंदु ही भक्ति आन्दोलन का केन्द्रीय बिंदु था. इस आन्दोलन का एतिहासिक आधार क्या है यदि इस दृष्टी से विचार करे तो सर जार्ज ग्रियर्सन ने ईसाई धर्म के प्रचार के कारण इसे उत्पन्न माना तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दू जनता में मुग़ल शासन व अत्याचार के कारण उत्पन्न निराशा व असहाय भाव मन: स्थिति से जुड़ा मन किन्तु गहराई से विचार करे तो भक्ति आन्दोलन मूलतः धार्मिक, सांस्कृतिक स्वरूप पर आधारित था जिसका आधार मानवीय मूल्य थे. यह सिधांत कि ईश्वर के समक्ष सभी मनुष्य एक समान है.

इस आन्दोलन का प्रमुख आधार था. इसलिए भक्ति काल में विभिन्न जाति, धर्म वर्ग के भक्त कवि है, जो उस समाज की संरचना में योग देते है. जिसमे जर्जर मान्यताये, रूढ़ परम्पराए, ब्राह्य, आडम्बर नहीं है. मनुष्य के बीच कोई भेद और विषमता नहीं है. आपस में विश्वास और प्रेम है.

लोक भाषा से जुड़े .भक्ति आन्दोलन के सूत्र गौतम बुद्ध की लोक वाणी सिधान्तो, नाथो की सर्व साधारण भाषा और महात्मा रामानंद की जन भाषा में दिए उपदेश व भक्ति में खोजे जा सकते है.

भक्ति आन्दोलन को प्रमुख रूप से दो भागो में बाँटा जा सकता है.
  1. निर्गुण काव्य धारा
  2. सगुण काव्य धारा

पुनः इन दो भागों को चार अंत: विभागों में विभाजित किया गया.

निर्गुण धारा – ज्ञान मार्गी शाखा, प्रेम मार्गी शाखा
सगुण धारा – राम भक्ति शाखा, कृष्ण भक्ति शाखा
निर्गुण काव्य धारा और सगुण काव्य धारा में अंतर केवल इतना है कि निर्गुण काव्य धारा के मत में ईश्वर निराकार है. वह अवतार नहीं लेता. सगुण काव्य धारा ईश्वर की लीलाओं व अवतार पर विश्वास करती है. किन्तु दोनों धराये ईश्वर के कृपालु, दयामय, करुनायुक्त स्वरूप को स्वीकार करती है.

निर्गुण काव्य धारा

ज्ञान मार्गी शाखा

निर्गुण काव्य धारा में बाह्य आडम्बर की तुलना में आंतरिक शुद्धता पर जोर दिया गया है. इन कवियों ने पारमार्थिक सत्ता की एकता निरुपित कर जीवन को अत्यंत सरल, निर्मल, स्वाभाविक बनाने के लिए उपदेश दिए. ज्ञान मार्गी काव्य धारा में जाति भेद, वर्ण भेद को दूर करने वाले पद, साखी, और नीति के दोहे मिलते है. जो भक्ति की परिभाषा, हरी को भजे सो हरी का होई मानते थे. इस धारा के प्रमुख कवि थे. कबीर दादू, दयाल, गुरु, नानक, रेदास, सुन्दरदास रज्जब आदि. कबीर इस धारा के प्रमुख कवि थे.

इस धारा के प्रमुख कवियों पर विभिन्न साधनाओ का प्रभाव है. भाषा के लोक प्रचलित रूप का प्रयोग है. नाथ. सिद्धो और हठयोग की शब्दावली का उपयोग भी किया गया है.

प्रेम मार्गी शाखा

संत कवियों की ज्ञानमार्गी धारा के साथ ही सूफी या प्रेम मार्गी शाखा की परम्परा भी दृष्टिगत होती है, जिसमे मुसलमान संत कवि सम्मिलित थे. इन कवियों ने भारतीय अद्वेत वाद में प्रेम का संयोग कर रहस्यमयी वाणी में प्रेम गाथाये लिखी. जिनमे भारतीय लोक गाथाओ को आधार बनाया गया था.

लौकिक प्रेम के माध्यम से इन कवियों ने अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की. व्यावहारिक जीवन में हिन्दुओ और मुसलमानों की एकता स्थापित करने में इन कवियों ने विशेष सहायता पहुंचाई. इनकी रचनाओ में मानव मात्र को स्पर्श करने वाली, मानव से सहानुभूति रखने वाली उदार भावनाए थी.

दोहा चौपाई या मसनवी शेली में सूफी संत कवियों ने अपने आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति की. इस परम्परा के प्रमुख कवि है. जायसी, कुतबन, मंझन, आलम, उसमान, शेख रहीम, नसीर आदि.

प्रमुख ग्रन्थ है

पद्मावत, मृगावती, मधुमालती आदि. सूफी कवियों ने जीव को ब्रह्म का अंश माना. गुरु की महत्वा स्वीकार कर वे मानते थे कि संसार के अज्ञान से गुरु का ज्ञान दीपक ही मुक्ति दिला सकता है. प्रेम, विरह का सशक्त चित्रण इस काव्य धारा में हुआ.

सगुण काव्य धारा

भक्ति आन्दोलन में निर्गुण काव्य धारा के साथ सगुण भक्ति धारा भी मिलती है. इसका मूलाधार था कि  मनुष्य का मन अस्थिर व चंचल होता है. जिसे एकाग्रता के लिए अवलंबन की आवश्यकता है. अत: ईश्वर का साकार व मूर्त रूप आवश्यक है.

सगुण काव्य धारा भी दो भागो में विभक्त है

रामभक्ति शाखा – इस शाखा में वैष्णव मत को स्वीकार कर विष्णु के अवतार रूप को महत्व दिया गया है. इसमें राम के जीवन चरित्र को आधार बनाया गया तथा इनके माध्यम से समाज को आदर्श मूल्यों स्वस्थ गुणों, सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया. इस शाखा में वैष्णव शैव समुदाय का सम्मिलन करने का प्रयत्न किया गया. इस शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास, अग्रदास, नाभादास, केशव दास है.

प्रमुख ग्रन्थ – रामचरित मानस, दोहावली, गीतावली, विनयपत्रिका, अष्टग्राम, भक्तमाल रामचंद्रिका है.

कृष्ण भक्ति शाखा – कृष्ण भक्ति शाखा में कृष्ण के चरित्र को आधार बनाकर काव्य रचना की गई. कृष्ण भक्ति धारा में कृष्ण के प्रति वात्सल्य भाव, बाल लीलाए, साख्य भाव, माधुर्य भाव की व्यंजना हुई, इस धारा में अष्ट छाप के कवि, जिनमे कुम्भनदास, परमानन्द दास, सूरदास, कृष्णदास, गौविंद स्वामी, छित स्वामी, चतुर्भुजदास, नंददास प्रसिद्ध है. कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवियों में सूरदास, मीरा रसखान है.
प्रमुख ग्रन्थ में सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, राम कल्प द्रुप, रास पंचाध्यायी, मीरा बाई की पदावली, प्रेम वाटिका आदि है.

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